JHARKHAND लालू ने कहा था मेरी लाश पर बनेगा झारखंड:राज्यपाल आधी रात कंफ्यूज हो गए कि किसे बनाएं पहला मुख्यमंत्री
2 अगस्त 2000 को लोकसभा में गहमा-गहमी थी। तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी बिहार पुनर्गठन विधेयक पेश करने वाले थे। इसके जरिए बिहार से अलग झारखंड राज्य बनाया जाना था। लालू प्रसाद यादव की RJD इसका विरोध कर रही थी।
झारखंड निर्माण को कांग्रेस की सहमति ने लालू यादव का खेल खराब कर दिया था। वो चाहकर भी कांग्रेस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे, क्योंकि बिहार में कांग्रेस के समर्थन से ही राबड़ी सरकार चल रही थी। तीन दिन तक चली बहस में RJD सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा कि झारखंड का विकास नहीं होने वाला है, बल्कि वो कंगाल रहेगा, बिहार भी कंगाल रहेगा।
झारखंड को बने 24 साल हो चुके हैं। पिछले साल जारी CAG की रिपोर्ट के अनुसार 2021-22 में बिहार में प्रति व्यक्ति आय 54,383 रुपए है। वहीं झारखंड में प्रति व्यक्ति आय 88,535 है।
झारखंड की कहानी’ सीरीज के दूसरे एपिसोड में झारखंड आंदोलन और अलग राज्य बनने की पूरी कहानी…
जयपाल सिंह मुंडा, एक आदिवासी जो ऑक्सफोर्ड से पढ़े, ओलिंपिक जीतने वाली हॉकी टीम के कप्तान रहे और भारतीय सिविल सेवा में भी रहे। झारखंड आंदोलन में उनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण है।
पत्रकार अश्विनी कुमार पंकज अपनी किताब ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ में लिखते हैं,
ये 1920 का दशक था जब छोटा नागपुर के पठार में आदिवासी समाज के अलग-अलग संगठन अपने तरीके से काम कर रहे थे। इनमें छोटा नागपुर उन्नति समाज सबसे पुराना संगठन था।
1928 में जब साइमन कमीशन रांची आया तो उन्नति समाज ने अलग प्रांत (राज्य) बनाने के लिए ज्ञापन दिया था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने ये मांग ठुकरा दी थी। इसके बाद उन्नति समाज के नेता बंट गए और आंदोलन ठंडा पड़ गया।
30-31 मई 1938 को आदिवासियों के लिए काम करने वाले संगठनों का एकता सम्मेलन बुलाया गया। सबको मिलाकर एक नया संगठन ‘अखिल भारतीय आदिवासी महासभा’ का ऐलान किया गया। इस बीच जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के बीच रांची पहुंच चुके थे। जयपाल सिंह को महासभा की कमान सौंपी गई। 20 जनवरी 1939 को रांची की रैली में जयपाल को सुनने एक लाख आदिवासी इकट्ठा हुए थे।
1 जनवरी 1950 को ‘अखिल भारतीय आदिवासी महासभा’ का नाम बदलकर झारखंड पार्टी कर दिया गया। आजादी के बाद जब पहला चुनाव 1951 में हुआ तो झारखंड पार्टी ने 32 विधानसभा और 4 लोकसभा सीटें जीतीं। जयपाल खूंटी सीट से लोकसभा पहुंचे।
आजादी मिलते ही देशभर में सांस्कृतिक और भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग उठ रही थी। 22 दिसंबर 1953 को सैयद फजल अली की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग का ऐलान हुआ। आयोग के दो सदस्य 2 फरवरी 1955 को रांची पहुंचना था।
इससे ठीक पहले बिहार कांग्रेस के नेताओं ने जयपाल सिंह को बताया कि आपको झारखंड पर चर्चा करने के लिए नेहरूजी ने दिल्ली बुलाया है। जयपाल दिल्ली चले गए। आयोग के मेंबर रांची में थे।
जब झारखंड पार्टी के कुछ नेता आयोग के सदस्यों से मिलने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि हम केवल जयपाल सिंह मुंडा से ही बात करेंगे, लेकिन वे तो दिल्ली में थे। नतीजतन आयोग के सदस्य वापस चले गए।
दरअसल, ये कांग्रेस नेताओं की चाल थी कि वे जयपाल आयोग के सदस्यों से नहीं मिल पाएं। झारखंड राज्य की मांग खारिज कर ये तर्क दिया गया कि ये सभी लोगों की नहीं केवल आदिवासियों की मांग है।
बाद में इस षड्यंत्र का खुलासा हुआ। दरअसल, जब जयपाल सिंह दिल्ली पहुंचे तो उन्हें बिहार CM श्रीकृष्ण सिंह, वरिष्ठ कांग्रेस नेता कृष्ण वल्लभ सहाय और विनोदानंद झा ने कहा कि नेहरू किसी भी वक्त झारखंड राज्य पर बात करने के लिए बुला सकते हैं।
ऐसा करते हुए दिल्ली में दो दिन हो गए थे। आखिर में अपने प्रयासों से जयपाल नेहरू से मिलने पहुंचे तो उन्होंने कहा मैंने आपको नहीं बुलाया। इसके बाद जयपाल समझ गए कि उनके साथ धोखा हुआ है। अलग राज्य का आंदोलन करने वाले नेताओं का दावा है कि अगर उस दिन आयोग के सदस्यों से जयपाल मिल लेते तो 1958 तक झारखंड अलग राज्य बन चुका होता।
आजादी के बाद 1951 में लोकसभा का चुनाव हुआ। छोटा नागपुर संथाल परगना सीट से जनता पार्टी के टिकट पर बाबू रामनारायण सिंह हजारीबाग से सांसद बने। उन्होंने संसद में पहली बार अलग राज्य के रूप में झारखंड की आवाज उठाई। ये वो दौर था जब कांग्रेस अलग झारखंड के खिलाफ थी, क्योंकि देश की राजनीति बिहार के नेताओं का वर्चस्व था। बाबू रामनारायण सिंह ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। इस बार वे झारखंड की आवाज उठा रहे थे।
16 अगस्त 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट पेश की गई। बाबू रामनारायण सिंह ने इस विधेयक का विरोध किया और कहा कि हम अलग झारखंड राज्य चाहते हैं। अनुज कुमार सिन्हा अपनी किताब ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष’ में भाषण का जिक्र करते हैं।
बाबू रामनारायण सिंह ने संसद में कहा कि छोटा नागपुर का होने के नाते मुझे बोलने का हक है। ये मेरा कर्त्तव्य भी है। बिहार के लोग हर तरह से छोटा नागपुर का शोषण करना चाहते हैं। यही कारण है कि छोटा नागपुर को अलग राज्य बनाने का आंदोलन चल रहा है। एक बार झारखंड को अलग होने दीजिए वो आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा मिलेगा।
बिहार की इतनी बड़ी कैबिनेट है, लेकिन हमारे वहां से एक भी विधायक को मंत्री नहीं बनाया गया है। ये आचरण यही साबित करता है कि हमारे साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है।
पश्चिमी सिंहभूम के गोइलकेरा प्रखंड के ईचाहातू गांव में घने जंगलों के बीच एक पत्थर का स्मारक लगा है। इस पर लिखा है कि झारखंड राज्य के लिए दी गई पहली शहादत। झारखंड के जंगल बचाने और विद्रोह का दीप जलाने के लिए महेश्वर जामुदा ने गोली खाई थी।
वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा अपनी किताब ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष’ में लिखते हैं कि गोइलकेरा में साप्ताहिक हाट लगता था। सरकार ने यहां सामान बेचने पर टैक्स लगा दिया। टैक्स वसूली का ठेका एक व्यक्ति को दे दिया गया। 3 नवंबर 1978 को सब्जी बेचने आई एक आदिवासी महिला ने टैक्स देने से इनकार कर दिया।
इसके बाद SDO आरडी ओझा ने एक मीटिंग की और सभी से कहा कि आपको टैक्स देना ही होगा। यही सरकार का नियम है। मौजूद आदिवासियों ने कहा कि हम टैक्स नहीं देंगे। ये सुनते ही SDO आग बबूला हो गए। उन्होंने पास पड़ी एक लाठी उठाई और लोगों को पीटना शुरू कर दिया। जब पुलिस ने देखा कि साहब ने लाठी चार्ज की शुरुआत कर दी है तो सिपाहियों ने भी लाठी चलाना शुरू कर दिया।
लाठीचार्ज की खबर दूसरे लोगों को हो चुकी थी। उस समय वन विकास निगम का खूब विरोध हो रहा था। दरअसल वन विभाग साल की जगह सागवान का पौधा रोप रहे थे। दरअसल, साल के पेड़ को आदिवासी पवित्र मानते हैं। वे साल के पेड़ की पूजा करते हैं। उनके पूजनीय पेड़ को काटा जा रहा था और उनकी जगह सागवान के पौधों को लगाया जा रहा था।
इसके चलते ईचाहातू के मुंडा ने आदिवासियों की 6 नवंबर को बैठक बुलाई। बैठक में ये तय होना था कि किसी भी कीमत पर सागवान का पौधा नहीं रोपने देना है। बैठक संतरा जंगल के बीच में एक खेत में बुलाई गई थी। महेश्वर जामुद भी पास के कोल्हान के जुगदी गांव के थे। वे भी बैठक में भाग लेने पहुंचे थे। उनका झारखंड के आंदोलन से कोई लेना देना नहीं था, लेकिन अपने पवित्र जंगल और साल के पेड़ के लिए वे पहुंचे थे।
पुलिस को बैठक की जानकारी मिल चुकी थी। पुलिस ने बैठक स्थल पर मोर्चा संभाल लिया। आदिवासी नेताओं से कहा कि हमने धारा 144 लगा दी है आप बैठक नहीं कर सकते। अगर आने जिद की तो हम कर्फ्यू लगा देंगे।
थोड़ी देर में ऐलान हुआ कि बैठक नहीं होगी। सब अपना रास्ते पकड़ने लगे, इतने में अचानक पुलिस वालों ने फायरिंग शुरू कर दी। एक गोली महेश्वर जामुदा को लगी। उनकी वहीं मौत हो गई। बाद में आदिवासी समाज ने उन्हें झारखंड राज्य के लिए हुआ पहला शहीद माना और उनके नाम का स्मारक लगाया। इस घटना ने अलग झारखंड राज्य के आंदोलन काे गति दी।
झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी JMM वह पॉलिटिकल पार्टी है, जिसे अलग झारखंड के निर्माण के लिए बनाया गया था। झारखंड के निर्माण में इसका जबरदस्त योगदान है। इसके बनने के पीछे भी रोचक किस्से हैं।
विनोद बिहारी महतो, एके राय और शिबू सोरेन ने इसकी नींव रखी थी। इससे पहले तीनों नेता एक ही उद्देश्य के लिए अलग-अलग काम कर रहे थे। विनोद बिहारी महतो धनबाद जाने माने वकील और कुर्मी समाज के बड़े नेता थे। वे और एके राय कम्युनिटी पार्टी के नेता थे, लेकिन झारखंड की मांग के कारण उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। शिबू सोरेन आदिवासी सुधार समिति चला रहे थे।
4 फरवरी 1972 को धनबाद में विनोद बाबू के घर पर तीनों नेता मिले। तीनों ने तय किया कि हम अपने संगठनों का विलय कर एक पॉलिटिकल पार्टी बनाएंगे, जो अलग झारखंड के लिए संघर्ष करेगी। कुछ महीने पहले ही बांग्लादेश आजाद हुआ था। उसे आजाद कराने में ‘मुक्ति वाहिनी’ ने लंबा संघर्ष किया था।
उधर वियतनाम में भी लोग मोर्चा ले रहे थे। दोनों जगहों के संघर्ष को जोड़कर नई पार्टी का नाम ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ रखा गया। विनोद बिहारी महतो अध्यक्ष और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया। अलग झारखंड की मांग के लिए पार्टी के स्थापना दिवस पर 4 फरवरी 1973 को धनबाद के गोल्फ मैदान पर स्थापना दिवस मनाया गया।
ये पहला मौका था जब हर तबके का व्यक्ति एक जाजम पर था और अपने लिए अलग राज्य मांग रहा था। विनोद राय के आने से कुर्मी, शिबू सोरेन के आने आदिवासी और एके राय के आने से मजदूर वर्ग एक साथ आया। एक लाख लोगों ने एक स्वर में कहा कि हमें अलग झारखंड चाहि
बात 1995 की है। जब बिहार विधानसभा में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने झारखंड के अलग किए जाने की बात पर कहा था कि झारखंड मेरी लाश पर बनेगा। वरिष्ठ पत्रकार सत्य भूषण सिंह बताते हैं कि झारखंड के आंदोलनकारियों ने लालू यादव के इस बयान को जरा भी गंभीरता से नहीं लिया था। वे जानते थे कि ये लालू का गेम है।
CM लालू यादव परेशान थे कि कैसे झारखंड के अलग होने की मांग को शांत किया जाए। लालू यादव पहले भी कई बार बोल चुके थे कि सारा सोना यानी खनिज संपदा तो उधर (झारखंड में) है, ये चला जाएगा तो हमारे पास क्या बचेगा? 1994 में CM लालू यादव ने झारखंड आंदोलन को शांत करने के लिए झारखंड विकास स्वायत्त परिषद का दांव खेल चुके थे।
लालू ने विधानसभा चुनाव से पहले ऐलान किया और कहा कि हम जीतने के बाद इसे लागू करेंगे। लालू चुनाव जीत भी गए थे। लालू ने इसका नाम झारखंड विकास स्वायत्त परिषद का नाम बदलकर झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद किया।
शिबू सोरेन को चुप कराने के उद्देश्य से उन्हें ही इस परिषद का अध्यक्ष बना दिया, लेकिन उनके पास फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं था। जब शिबू अध्यक्ष बने तो इसका JMM में विरोध होने लगा। इसके बाद शिबू सोरेन को परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा।
उधर जनता दल में टूट के कारण लालू की सरकार संकट में आ गई। लालू ने शिबू सोरेन से मदद मांगी। शिबू ने इस शर्त पर सपोर्ट किया कि वो अलग झारखंड राज्य बनाने में उनकी मदद करेंगे। चारा घोटाले के कारण लालू को इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन इससे पहले शिबू सोरेन ने बिहार विधानसभा में अलग झारखंड राज्य के निर्माण का प्रस्ताव कैबिनेट से पास करवा लिया था।
जुलाई 1997 में राबड़ी देवी CM बनीं। जब स्थितियां सामान्य हुईं तो लालू मुकर गए कि वे अलग झारखंड को सहमति नहीं दे सकते। ये बात अलग है कि सन् 2000 उन्हीं लालू यादव को बिहार विधानसभा में अलग झारखंड राज्य के बिल को सहमति देना पड़ी थी।
14-15 नवंबर 2000 की दरमियानी रात को अचानक राजभवन के वर्तमान गुलाब गार्डन में हलचल मचने लगी। क्या कर्मचारी और क्या अफसर तेजी से अंदर बाहर हो रहे थे। पहले से तैनात पुलिस वाले समझ नहीं पा रहे थे कि आधी रात को क्या हो रहा है।
वे भी जानते थे कि अब झारखंड राज्य बन चुका है। बस औपचारिकताएं बाकी हैं, लेकिन सबसे बड़ी औपचारिकता सरकार बनाने की थी। ये माना जा रहा था कि दिशोम गुरु शिबू सोरेन ही झारखंड के पहले CM होंगे।